Sunday 25 November 2012

बस यूँही

वो दबे पाँव आँख बचा के निकल गया
और लोग वक़्त का इंतज़ार करते रहे !!!!

मेरी आँखों में वो कुछ इस तरहां से देख रहा था 
जैसे टूटे आईने के टुकड़ो में से खुद को बीन रहा हो

चाँद के चेहरे के दाग तो सब को नज़र आए
पर कोई तो हो जो सूरज से भी आँख मिलाए

गमलों में उगा रखी हैं 
मुसत्ख्बिल की फसलें 
वो ज़मीदार तो नहीं है 
पर न उम्मीद भी नहीं

वक़्त की तरह मैं बस चलता चला गया 
वो जो दरिया थे वो सागर में जा के सो गए

गुज़र गया एक और दिन 
पर वक़्त वहीं खड़ा है अभी 
बस अब ये न पूछना कि "कहाँ"

किसके नक्श-ए-पा पे चला जाए 
आजकल रहबर तो हवाओं में उड़ते हैं

मुझे बर्बाद करने वालो में कल ये भी शुमार था 
तो फिर ये "वक़्त" आज मुझ पे मेहरबान  क्यों है

असल तनहा वो है 
जो तन्हाई में भी तनहा हो 
भीड़ में तो सभी तनहा हुआ करते हैं

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