Wednesday 31 October 2012

मुफलिस

लोग मेरी मुफलसी से भी उम्मीदें लगाये बैठे हैं 
हरदम मेरे कांसे पे अपनी नज़रे जमाए बैठे हैं 
वो जो देते फिरते हैं नसीहत मुहब्बतों की हमें 
वफाओं कि मंडी में अपनी दुकान सजाए बैठे हैं 
एक मैं ही हूँ जो चाँद के दीदार को तरसता हूँ 
वरना यहाँ लोग तो कब के ईद मनाए बैठे हैं

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी में
ज़रूरते कम हैं
ख्वाहिशें ज्यादा हैं ...
नतीजे कम हैं 
आज़्माइशे ज्यादा हैं ...
फ़र्ज़ कम हैं
फरमाइशे ज्यादा हैं ...
अहसास कम है 
नुमाइशे ज्यादा हैं .....

Monday 29 October 2012

दस्तार

ये कैसा दौर है
अजीब लोग हैं
घुटनों के बल चलते हैं
पुरूस्कार पाने को ....
सर कदमो में रख देते हैं
दस्तार पाने को .....

करीना

आंसुओं को अपने ज़रा पीना सीखो 
थोड़ा प्यासा रह के भी जीना सीखो
ज़ख्म अल्फाजों के रफू नहीं होते 
थोड़ा होंठो को ही अपने सीना सीखो
यूँ नज़रों से दिल में नहीं उतरा करते 
किसी से आँख मिलाने का करीना सीखो

रिश्ते ...

अजीब लोग हैं जो तन्हाई से घबराते है
ज़िन्दगी भर वो खुद से नहीं मिल पाते हैं
तू खुशनसीब है कि मैं तेरा कुछ भी नहीं
ऐसे रिश्ते बड़ी शिद्दत से निभाए जाते हैं
उजाले दिन भर कहीं पर भी भटकते रहें
जब शाम ढलती है मेरे घर पे चले आते हैं
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