Monday 21 January 2013


प्रथा, व्यवस्था, व्यवहार, विवशता या आवश्यकता बना दो 
तुम तो सरकार हो तुम इस "छलावे" को कुछ भी बता दो 
लोग हँस लेंगे या रो लेंगे, या बहस कर लेंगे गलियों में 
मुल्क का सौदा कहाँ-कितने में किया बस इतना बता दो
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बनावट की संतुष्टि है और काल्पनिक दर्पण है 
किरदार थके हारे आधुनिकता का आवरण है 
हैं सीधे सपाट रस्ते पर भटका हुआ हर मन है 
हो शहर जिसको कहते किसी गाँव की उतरन है
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दोस्ती करने से पहले ठोक-बजा के परखते हैं 
आजकल लोग कितनी अहतियात बरतते हैं 
कौन, कब, जाने, कहाँ, किस काम आजाए 
बस इसलिए सब से दुआ-सलाम रखते हैं 
रेत साहिल पे जो तकता हूँ तो ख़याल आता है 
इक समंदर में जाने कितने ही सेहरा बसते हैं 
गरीबी के पाँव में लाचारी के बंधे हैं घुंघरू 
सिक्कों की थाप पे पत्थर से दिल धड़कते हैं
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कितना बेख़ौफ़ हो चुका है ये 
अपने वुजूद से डर लगता है 
आसमां ज़मीं पर न ले आए 
अपने जुनून से डर लगता है
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सियासत दान हैं 
अक्ल से काम करते हैं 
बलवा करवा के 
खुद आराम करते हैं
बंजर ज़हनो में
आश्वासन रोंप देते हैं 
फिर पांच साल तक 
फसल का 
इंतज़ार करते हैं
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