Sunday 20 January 2013


वक़्त रुका रुका सा लगेगा तुम्हें 
वक़्त के बराबर चल के देखो ज़रा ...

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बचपन इस कदर उलझ चुका है किताबों में 
अब परियों से मिलने नहीं जा पाता ख्वाबों में
कभी बच्चों से पूछ देखो, मायने "मज़हब" के 
सौ सवाल छुपे नज़र आएँगे उनके जवाबों में
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तुझे संग-ए-दिल भी कहते हैं 
तेरी इबादत भी करते हैं 
तेरे वुजूद पे सवाल करने वाले 
तेरे कहर से डरते हैं .......
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भूले से भूल न जाना तुम कहीं बातों को मेरी 
याद से यादों को मेरी सीने में छुपाये रखना 
शाम ने कसम देते हुए रात के कानों में कहा 
गुनाह सब दिन के अँधेरों में छिपाए रखना
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ज़हन में कुछ और ही है इन दिनों 
ख्वाहिशें मुँहजोर सी हैं इन दिनों 
रातों कि स्याही अब इनसे मिटती नहीं 
थकी थकी हर भोर सी है इन दिनों 
सबकी आँखों में ही कुछ सवाल हैं 
तोहमतो का दौर ही है इन दिनों 
अब कहाँ अल्फाजो में वो जुम्बिश रही 
कलम भी कमज़ोर सी हैं इन दिनों ........
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सब अपने से ही लगते हैं आईने में 
चलो किसी दूसरी दुनिया में चलें
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यूँ न ख्वाबों को मेरे ज़ाया की जे 
कभी मिलने भी आ जाया की जे 
पाओं में चुभ जाएगा तारा कोई 
टहलने रातों को न जाया की जे 
मय से तौबा कर चूका है दिल 
हमसे नजरें न मिलाया की जे 
आपका दिल तो है आईने जैसा 
सो इसमें बातें न छुपाया की जे
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वक़्त करवटें बदलता रहा 
सलवटें ज़िन्दगी में पड़ती रही
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ये बड़ा मुक़द्दस गुनाह किया तूने 
मुझे मुझ से जो जुदा किया तूने
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कुछ इस तरहां से गले मिला 
ज़ख्म दिल के हरे कर गया
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खुद को ढूंडने निकला था इक रोज़ 
बस उसी दिन से गुमशुदा हूँ मैं
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जुर्रत भी चाहिए ख्वाब देखने के लिए 
बस सिर्फ नींद का आ जाना काफी नहीं
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न जाने सूरज को इन दिनों किस बात का गम है 
दिन में रौशनी तो बहुत है पर उजाला कुछ कम है
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अब राशन कार्ड पे बँटता है रिश्तेदारों में 
प्यार की किल्लत रहती है त्योहारों में
सौगात आवरण में है सो निश्चिन्त रहो 
उत्सुक्ता बनी रहेगी सबके व्यवहारों में
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वो और होंगे जो सूरतों पे मरते हैं 
हम सीरत देख के एहतराम करते हैं 
जितने दिल वाले हैं सब दोस्त हैं मेरे 
अक्ल वाले तो खैर मुझ से डरते हैं
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अगर वफाओं को खरीददारों की कमी नहीं 
तो उसके चेहरे को भी किरदारों की कमी नहीं 
सपने दिखा के, कभी आँखें दिखा के लूटते हैं 
मेरी सरकार के पास हथयारों की कमी नहीं
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गर वक़्त के हाथों में छोड़ देता इसे 
मेरा मुक़द्दर संवर भी सकता था,
"और" बिगड़ भी सकता था .....
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शायद पटाखों के शोर से डरता है 
दीपावली को चाँद घर से नहीं निकलता है ....
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वो अपनी तकरीरों में बेरोज़गारी हटाते रहे 
लोग मुस्कुराते रहे और तालियाँ बजाते रहे
तंज़ कसते रहे इक-दूजे पे तोहमतें लगाते रहे 
नूरा कुश्ती कर अवाम का दिल बहलाते रहे 
जिनके आस्तीन में खंजर थे दामन पे लहू 
अमन का मसीहा वो अपने आप को बताते रहे
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कमबख्त वक़्त ही नहीं मिलता 
वक़्त मिलता तो सुकूँ ढून्ढ लेता
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दूर बहुत दूर तक अँधेरा है
पर उस अँधेरे के पार दूर कहीं इक तारा टिमटिमाता है
हर खुली आँख को अँधेरे में बस वही तारा नज़र आता है 
स्याह रात के सफ़र में ये सबको रास्ता दिखता है
वो उजालो का हक़दार नहीं जो अँधेरे से घबराता है 
अँधेरा दूर तक तो पसर सकता है, पर अँधेरा देर तक नहीं रह पाता है
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मारी दोस्ती न टूटेगी कभी 
उसकी फितरत में बेवफाई है 
मेरी आदत फरेब खाने की ...
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मैं एक ऐसा गीत हूँ, 
जो तुन तन्हाई में गाया करोगे 
अल्फाज़ भूल भी जाओगे गर 
फिर भी धुन गुनगुनाया करोगे ....
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यूँ न मेरी आखों को टटोल 
तू अपना ह्रदय खोल 
अपने मन कि बतियां बोल ..

क्यों इतना असहज बैठा है 
किस बात का अभिमान है 
क्योंकर इतना ऐंठा है ... 

अपव्यय खुशियों कि चाह में
कृत्रिम आश्रित उत्साह में 
क्यों बह गए विकृत प्रवाह में ...
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झूठ कहता है कि वो वक़्त को समझता है 
वक़्त को कोई समझ नहीं पाता है 
जितना वक़्त लगता है वक़्त को समझने में 
उतने वक़्त में तो वक़्त बदल जाता है
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इतना उलझा लिया है ज़िन्दगी को 
कि ये अब अपनी सी ही नहीं लगी.........
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लोग मेरी मुफलसी से भी उम्मीदें लगाये बैठे हैं 
हरदम मेरे कांसे पे अपनी नज़रे जमाए बैठे हैं 
वो जो देते फिरते हैं नसीहत मुहब्बतों की हमें 
वफाओं कि मंडी में अपनी दुकान सजाए बैठे हैं 
एक मैं ही हूँ जो चाँद के दीदार को तरसता हूँ 
वरना यहाँ लोग तो कब के ईद मनाए बैठे हैं
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अब ये कहाँ कुछ कहता है 
ज़्यादातर चुप ही रहता है ......
आँखों का पानी सूख गया 
बस इक आग का दरिया बहता है ....
शायद उसका कोई दोस्त नहीं 
वो जो हर दम हँसता रहता है...
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ज़िन्दगी में
ज़रूरते कम हैं
ख्वाहिशें ज्यादा हैं ...
नतीजे कम हैं 
आज़्माइशे ज्यादा हैं ...
फ़र्ज़ कम हैं
फरमाइशे ज्यादा हैं ...
अहसास कम है 
नुमाइशे ज्यादा हैं .....
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क्या हैं आँखों से दिल के मरासिम अश्क जानते हैं 
या तुम दिवाना जिन्हें कहते हो वो शख्स जानते हैं
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आंसुओं को अपने ज़रा पीना सीखो 
थोड़ा प्यासा रह के भी जीना सीखो
ज़ख्म अल्फाजों के रफू नहीं होते 
थोड़ा होंठो को ही अपने सीना सीखो
यूँ नज़रों से दिल में नहीं उतरा करते 
किसी से आँख मिलाने का करीना सीखो
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वो दबे पाँव आँख बचा के निकल गया
और लोग वक़्त का इंतज़ार करते रहे !!!!
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अजीब लोग हैं जो तन्हाई से घबराते है 
ज़िन्दगी भर खुद से नहीं मिल पाते हैं 
तू खुशनसीब है कि मैं तेरा कुछ भी नहीं 
ऐसे रिश्ते बड़ी शिद्दत से निभाए जाते हैं 
उजाले दिन भर कहीं भी भटकते रहें 
शाम ढलते ही मेरे घर पे चले आते हैं
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तंग गलियों में है सो महफूज़ है ये सादगी अपनी 
बड़े बाज़ार में जो होती तो कब की लुट गई होती 
ये तो अच्छा है मेरे कमरे में कोई रोशनदान नहीं है 
तेरे शहर की हवाओं से तो साँसे घुट घुट गई होती 
लावारिस लाश इक फौजी की सरहद पे रो-रो के यूँ बोली 
"गर जो फनकार में होता तो यहाँ खलकत जुट गई होती "
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जिसकी फितरत में, लहजे में जी-हजूरी है 
ग़ुलाम रहना उस शख्स की मजबूरी है
हाँ ! मैं बदमिजाज हूँ पर बदतमीज़ नहीं 
इतनी सी तल्खी, आज के दौर में ज़रूरी
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फांसले कुछ कम हुए पर दूरियाँ बढती गईं
कोशिशें तो की मगर मजबूरियाँ बढती गईं
नसीब के हाथों शिकस्त मिलती रही वक़्त को 
ज्यों ज्यों दिन चढ़ता गया बेनूरियाँ बढती गईं
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जिस हाल में अच्छा हूँ मुझे बिकने को न कहो 
इस दुनिया के जैसा बनावटी दिखने को न कहो 
जो बच्चो से उनकी मासूमियत तक छीन ले गईं 
उन फिजाओं को सुहाना मुझे लिखने को न कहो
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