वो शहीदों की चिताओं की ज्वाला थी
बेड़ियाँ घुलामी की जिसने पिंघलाई थी
उन्ही चिताओं की अग्नि के उजाले थे
जिसने सुबहा आजादी की हमें दिखाई थी
आज भी इस वतन के गद्दारों के वंशज
उन चिताओं पे सत्ता की रोटी सेक रहे हैं
सबसे बड़ी विडम्बना ये है की हम सब
बस मूक-दर्शक बन सब कुछ देख रहे हैं ......
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मुझ जैसा बनने कि कोशिश में
जाने कितने मुकद्दर बिगड़ गए ....
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वक़्त-ए-रुखसत उन आँखों में अनछुई कहानी थी
न जाने वो बात क्या होगी जो मुझे उसने बतानी थी
न मैं उससे नवाकिफ था न वो मुझसे अनजानी थी
पर कुछ हालत ऐसे थे कि मुहब्बत हो ही जानी थी
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मौसम का तकाज़ा है कि घर पे ही रहो
तेज़ हवाएँ अक्सर पर्दों को उड़ा देतीं हैं
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मैं उस से एक तरफ़ा प्यार करता रहा
और ये सिलसिला बा दस्तूर चलता रहा
ज़िन्दगी मुझे मारती रही और मैं ज़िन्दगी पे मरता रहा
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तू जिस किसी को भी रस्ता दिखायेगा
"वो" सबसे पहले तुझे रस्ते से हटाएगा
ये दस्तूर कोई नया नहीं है ए मेरे दोस्त
जो इस शहर में रहेगा तो समझ जाएगा
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छोटे मोटे हादसों की खबरे कहा बनती हैं
शहीदों की आज कल कब्रें कहा बनती हैं
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तकदीर से शिकवा कैसा
ज़िन्दगी से शिकायत कैसी
हम अपने अंदाज़ से जिए
वो अपने हिसाब से चले...
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ये तो हम हीं है जो, तुझपे मरने को तैयार हैं
वरना ए ज़िन्दगी तेरा करता कौन ऐतबार है
मुझमे बुलंदियों को छू लेने की हसरत भी है
और पैर की जंजीरों से भी बड़ा प्यार है
मैं कैसे उसको कह दूं कि मुझे न प्यार कर
भला उसके के दिल पे मेरा क्या इख्तेयार है
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अखबार पढ़ते हुए एक पिता ने बेटे को बताया
"आज अपने देश का 'प्रथम नागरिक' चुना जायेगा "
बच्चे ने मासूमियत से पूछा
"ये प्रथम नागरिक कौन होता है
क्या बाढ़ का पानी सबसे पहले इसका घर डुबोता है
या जब जंग छिड़ती है तो ये सबसे आगे लड़ने जाता है
या ... या .. या.. न जाने कितने ऐसे सवाल"
बच्चे कितने बड़े सवाल पूछने लगे हैं
या हमें .. छोटे छोटे सवाल कितने बड़े लगने लगे हैं .......
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यूँ मैं, खुद को इक उम्र तक छलता रहा
अपने साये को दे दिया नाम तेरा
और फिर धूप में चलता रहा-चलता रहा ....
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चेहरा कोई भी लगा लें
पर सब जीते हैं
ज़िन्दगी अपनी अपनी यहाँ ..
किसी का ग़म कोई जी नहीं सकता
किसी की ख़ुशी किसी को बर्दाश्त कहाँ ...
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वो और वक्त था जब छत पे पलंग लगाते थे
चाँद को सिरहाना बना
तारे ओढ़ के सो जाते थे ............
वो और वक़्त था जब सूरज से पेच लगते थे
वफ़ा की डोर से
दोस्ती की पतंग उड़ाते थे .............
वो और वक़्त था जब भावनाओं की कीमत थी
बस सवा रुपये में ही
भगवान् मान जाते थे........
वो वक़्त और था जब बस चोर चोरी करते थे
डाकू बीहड़ में और
नेता संसद में पाए जाते थे .......
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बस इतनी सी बात पे वो हमसे खफा रहा
हम बोले यूँ सबसे हँस के न मिला करो
और वो बोले की हमने उसे "बेवफा" कहा
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पत्थर के बने मन्दिर में
भगवान् की मूरत पत्थर की
तुम अपने मन-मन्दिर को तो
अब पत्थर का न होने दो ...
जहां प्रभु स्वयं आके वास करें
कोई जगहाँ तो ऐसी हो ...
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पहले तो अपना घर ही अपनी "दुनिया" थी
फिर ये पूरी दुनिया घर सी लगने लगी
और अब घर में ही घर नहीं मिलता
दुनिया बहुत बड़ी हो गयी हो जैसे .....
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कुछ दिन खुद-ब-खुद आ जाते हैं
कुछ दिनों तक जाना पड़ता है
और कुछ दिन लाने पड़ते हैं .....
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बस कि, मुझसे त्वालुकात न यूं बढ़ाइए
मैं बंदा कुछ ठीक नहीं, सो, संभल जाइए
मरहम की मेरे ज़ख्मो को आदत कहाँ
आप दोस्त हैं तो थोडा नमक ले आइये
ये नजदीकियां बदनाम कर देंगी तुम्हें
ज़रा दूर रहो जो तुमको शौहरत चाहिए
में चुप हूँ पर शिकवे कई मुझको भी हैं
मेरी ख़ामोशी को बस और न आजमाइए
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अब शरीफों का चरित्र देख के गुण्डे-बदमाश भी स्तब्ध है
इमानदारी कभी बिकती नहीं बस किराए पे उपलब्ध है
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मँहगाई के दौर में
दूध का धुला है, कौन
धुला भी हो ...
तो इमानदारी बनावटी है
पर किसी का दोष क्या
दूध ही मिलावटी है .....
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अँधेरे की आड़ में इंसान क्या क्या कारनामें करता है
बस यही सोच के सूरज का दिल सारा दिन जलता हैं
एक दिन सूरज ने कहा
"चलो आज रात में भी निकलता हूँ "
सब शरीफों ने हल्ला कर दिया ........
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मेरे वजूद का मेरे रकीब भी अहतराम करने लगे
मुझसे लड़ नहीं पाए तो मुझे बदनाम करने लगे
आज लगता उन्हें मेरी ज़रुरत है कहीं आन पड़ी
जो सर-ए-महफ़िल मुझसे दुआ सलाम करने लगे
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भला .. और क्या हमें चाहिए
जिन्दा रहने के लिए ...
कुछ फ़र्ज़ हैं, कुछ क़र्ज़ हैं,
कुछ दर्द हैं, कुछ मर्ज़ हैं
सबसे ख़ुशी की बात है
कि दोस्त भी हैं जो खुदगर्ज़ हैं ...
तू ही बता ए ज़िन्दगी ..
तुझे और क्या कुछ चाहिए ..
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जो बात सच है वो बेख़ौफ़ हो के कहता हूँ
तंज़ दुनिया के मुस्कुरा के सभी सहता हूँ
एक तख्ती ही लगी रह गई मेरे नाम की बस
इस मकान में अब "मैं" कहाँ रहता हूँ
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जैसे कोई बात है मन में
पर कह नहीं पा रहे हैं ....
कई बार आए
कुछ देर तक ठहरे, फिर चले गए
हमारी बेकरारी बढ़ा रहे हैं
ये .... बादल हमें सता रहे हैं ....
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माना तुम्हारे वश में न था
सूरज को थामें रखना
किन्तु अँधेरा होने से पहले
जो तुम दीपक एक जला देते
उन उजालो पे तुम्हारा नाम होता ...
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राज़ सारे, दो पल में, दिल के खोल आए
निगोड़े आँसू न जाने क्या क्या बोला आए
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कोई ज़माना था
जब.. "चमचे चाँदी के हुआ करते थे "
अब .. "चमचों की चाँदी है"
बदन पे खादी है
जेब में गाँधी है ....
जो चुप रहे उसे मिलता "प्रणाम" है
जो झूठ बोले उसे मिलता इनाम है
और जो सच्चा है उसका जीना हराम है
चलो भाइयो ..
जो भी है ..
"अपना भारत फिर भी महान है "
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ये मशवरे देने के सिवा और क्या करते हैं ..
ये दोस्त न दुआ करते हैं न दवा करते हैं
थोड़ी सी चिंगारी भी कहीं देख लें अगर
दामन से अपने जोर-जोर से हवा करते हैं
सच बोल के महफूज़ कितना है यहाँ कोई
मेरी खिड़की के टूटे काँच सब बयाँ करते हैं
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हर सुबह चढ़ता सूरज कुछ समझाता है
बाग़ में हर खिलता फूल हमें बताता है
वक़्त कभी एक सा नहीं रहता
बुरा जाता है तो अच्छा आता है
खुद को हालत के अग्नि में न जलने दो
अपने सपनो को अपनी आँखों में पलने दो
अपनी उम्मीदों को जिंदा रक्खो
आशाओं को ख़ुदकुशी न करने दो
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हर रोज़ सुबह अखबारों में यहाँ खबरे बिकती हैं
जो जीते जी नहीं बिकते उनकी कब्रे बिकती हैं
कौन दिखायेगा दुनिया को हकीकत दुनिया की
कही नज़ारे बिकते हैं, तो कही नज़रे बिकती हैं
किस पे करू भरोसा कहाँ छाँव मिलेगी मुझको
धूप के हाथो हर लम्हा यहाँ शज़रे बिकती हैं
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बिना आँगन के ऊँचे घरो की
आदत सी हो गयी अब पतझड़ों की
मुरब्बे आँवले के कौन खाए
कौन सुनता है अब अपने बड़ों की
तुम्हारे आँसुओं से क्या होगा
अपनी सरकार है चिकने घड़ों की
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तुम्हारी ही तरहां
"सब भगवान् के हाथ है" कह
हर कोई अप्र्यत्नशील हो जाए
तो ज़रा सोचो ...
जीवन का क्या मज़ा रह आये ....
संतोष के नाम पे निठ्ठला
सय्यम की आढ़ में आलसी
हो जाए
अपने डर को सहनशीलता के
मखौटे में छुपाये
और फिर अपने अभिमान को
स्वाभिनाम बताये ..
तो .. सोचो ज़रा
जीने का क्या मायेना रह जाए .......
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सुना है बंदा वो रहा अब पहले जैसा आम नहीं
सो ऐरे-गैरे लोगो से करता दुआ-सलाम नहीं
तेरे-मेरे जैसे भी अपना तखल्लुस लिखने लगे
अदब की दुनिया में जिनका नामो-निशान नहीं
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हवा भी खुश्क है, लोगों के मिजाज़ के जैसे
बता तेरे शहर में कोई रहे तो फिर रहे कैसे
शोर सिक्कों की खनखनाहट का है चारो तरफ
बातें दिल की कोई कहे तो फिर कहे कैसे
रंग दुनिया के देख पत्थर की हो गयी आँखें
नदी अश्कों की अब बहे तो फिर बहे कैसे
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याकीन मानो दुनिया में खुद को अकेला पाओगे
रिश्तो की आजमाइश करने जो निकल जाओगे
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सच या झूठ को लोग सिक्कों में तोलते हैं
जो बोलने से दाम बेहतर मिले वो बोलते हैं
उम्मीदें तो थक हार के बैठ जाती हैं घर पे
बस ख्वाब हैं जो दिन रात सडको पे दौड़ते हैं
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कोई बस्ती जली है, कहीं से धुंआ उड़ा चला आता है
दिल में दर्द तो नहीं पर आँखों से सैलाब बहा जाता है
कल बेच के आया था जो अपनी दस्तार को बाज़ार में
आज उन हज़रात को साहिब-ए-किरदार कहा जाता है
जो बस अपने बारे में सोचे उसे मतलब परस्त कहते हैं
और मतलब परस्तों के झुण्ड को सरकार कहा जाता है
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जवाब सुनते, तो बैठ न पाते
सो, सवाल करके वो चलते बने ,,,,,,,,,,,
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कभी गौर से सुनना
जलती तपती गर्मी के बाद
जब बारिश की पहली बौछार
धरती पे गिरती है ...
तो "छान्न्नन्न्न्न " की आवाज़ आती है
जैसे गर्म तवे पे पानी के छींटे गिरे हों ....
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वो पाक दामन था
दिल का भी साफ़ था
बस बेवफा निकला .. अजब ... इत्तेफाक था