Monday, 21 January 2013


प्रथा, व्यवस्था, व्यवहार, विवशता या आवश्यकता बना दो 
तुम तो सरकार हो तुम इस "छलावे" को कुछ भी बता दो 
लोग हँस लेंगे या रो लेंगे, या बहस कर लेंगे गलियों में 
मुल्क का सौदा कहाँ-कितने में किया बस इतना बता दो
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बनावट की संतुष्टि है और काल्पनिक दर्पण है 
किरदार थके हारे आधुनिकता का आवरण है 
हैं सीधे सपाट रस्ते पर भटका हुआ हर मन है 
हो शहर जिसको कहते किसी गाँव की उतरन है
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दोस्ती करने से पहले ठोक-बजा के परखते हैं 
आजकल लोग कितनी अहतियात बरतते हैं 
कौन, कब, जाने, कहाँ, किस काम आजाए 
बस इसलिए सब से दुआ-सलाम रखते हैं 
रेत साहिल पे जो तकता हूँ तो ख़याल आता है 
इक समंदर में जाने कितने ही सेहरा बसते हैं 
गरीबी के पाँव में लाचारी के बंधे हैं घुंघरू 
सिक्कों की थाप पे पत्थर से दिल धड़कते हैं
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कितना बेख़ौफ़ हो चुका है ये 
अपने वुजूद से डर लगता है 
आसमां ज़मीं पर न ले आए 
अपने जुनून से डर लगता है
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सियासत दान हैं 
अक्ल से काम करते हैं 
बलवा करवा के 
खुद आराम करते हैं
बंजर ज़हनो में
आश्वासन रोंप देते हैं 
फिर पांच साल तक 
फसल का 
इंतज़ार करते हैं
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वो अपने दामन से हवा करके बोले 
बुझाए देते हैं लो ये सुलगते शोले
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वो बोले आज शाम को साथ बैठ चाय पीएँगे
गोया की सुई में धागा पिरो के लाए हैं
देखो !! अब क्या होगा 
ज़ख्म रफू होगे या फिर लबों को सीएँगे 
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किसी का चित्र नोटों पे 
किसी का चिन्ह वोटो पे 
शहीदों तुम ह्रदय में हो 
तुम्हारा नाम होंठो पे .....
किसी के महल जनपथ पे 
किसी का राज घाटों पे 
शहीदों तुम ज़हन में हो
चरण की ख़ाक माथों पे .....
किसी के चित्र संसद में
कई हुए रत्न भारत के
शहीदों तुम रगों में हो
तुम हो रक्त भारत के ...
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मुझे यकीं था कि वो दगा देगा
चलो इक इंतज़ार खत्म हुआ
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गरीब का मज़हब तो बस फकत गरीबी है 
उसको कोटे में मिलती आई बदनसीबी है 
नीले-पीले कार्ड पहचान हैं 
ख्वाबो पे खुला अनुदान है 
हर लेखानुदान में ज़िक्र है इनका
हर भूखी आँख को फ़िक्र है इनका
इनके होने से तो जिंदा ये सरकारे हैं 
बस इनके वास्ते संसद में सब तकरारे हैं 
सब यही चाहते हैं की ये धर्म बढ़ता रहे 
गरीब की दुआं से इनका घर भरता रहे
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आज वो गलियाँ तंग नज़र आने लगी 
जिन गलियों में कभी नंगे पाँव खेले थे 
जिन मोहल्लों में हर शाम लगते मेले थे 
जब अपनी कार से बाहर नज़र दौड़ाते हैं 
आज वो लोग जमा भीड़ नज़र आते हैं 
उम्र के साथ-साथ खेल बड़े होते रहे 
कद के साथ, ठाठ और गरूर बढ़ा
ज़रूरते बढती गईं, मजबूरियाँ बढ़ती गई 
पुराने पड़ौसी के घर से दूरियाँ बढती गईं
अपने परिचय से उन्हें शर्म सी है आने लगी 
आज वो गलियाँ उन्हें तंग नज़र आने लगी
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Sunday, 20 January 2013


जुगनू मुट्ठी में पकड़ा
फिर मुट्ठी को फूँक मारी 
जुगनू तारा बना गया 
फिर तारे को हवा में उछाला 
आसमान में सजा दिया 
पूरी रात यूँही करता रहा 
थक गया कल रात तो ....
अब दीवाने को सोने दो ..
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हर सुबह उठ के खुद से नजरें मिला पाता हूँ 
बस इसी में खुश हूँ और बेख़ौफ़ जिए जाता हूँ
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रगिज़ न बचेगा उसे जानलेवा बिमारी है 
उसकी फितरत में शराफत है इमानदारी है 
मन में कुछ हो तो चेहरे से झलक जाता हैं 
बस साफगोई की ये आदत बुरी हमारी है
जिनसे दिल नहीं मिलता उनसे गले मिलो 
भई हमें नहीं सीखनी कोई ऐसी अदाकारी है
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सन्नाटा नहीं अब सकून चाहिए 
जोश तो बड़ा है अब जनून चाहिए
कब तलक ये अश्कों का बसेरा रहे 
इन आँखों में उतरना अब खून चाहिए 
सरमायेदारों की जेबों में रहता है जो 
फूँक देना हर ऐसा कानून चाहिए
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सब मसरूफ हैं ग़म में अपने 
हाल किसी का पूछे कौन 
कौन महफूज़ है घर में अपने 
हाल किसी का पूछे कौन
जब हाकिम ही मजबूर हैं अपने 
हाल किसी का पूछे कौन
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बड़ी मीठी जुबान वालों से मुझे डर सा लगता है 
बड़ी ऊँची उड़ान वालों से मुझे डर सा लगता है 
जज्बातों की तिजारत कभी आई नहीं मुझे 
रिश्तों के दुकानदारों से मुझे डर सा लगता है
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ऐसा खोया दुनिया की भीड़ में वो 
अब हर आईने में खुद को ढूँढता है
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अजीब सौदागर था जो तकदीरें बेचता था 
पुतलों को भी जंग लगी शमशीरें बेचता था 
फनकार कहाँ होगा "नीरज" सा और कोई 
लफ़्ज़ों पे कुरेद करके तस्वीरें बेचता था
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चलो छोड़ो ज़माने वालों को 
बेवजह दिल दुखाने वालो को 
मेरे रस्तो की खबर दे आओ 
राह में काँटे बिछाने वालो को 
दस्तारें खैरात में नहीं मिलती 
बतला दो सर झुकाने वालो को

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जब मैं नींद से जागा तो पाँव में छाले थे 
ख्वाबो की आवारगी और वो भी इस कदर 
मियाँ मासूम तो नहीं हूँ पर नादान भी नहीं 
बस वाइज़ की बातों से मुझे लगता है थोडा डर
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वो जो मेरे दिल के करीब रहते हैं 
वो मेरी बातों को अजीब कहते हैं 
जब से मेरा सर कटा है दोस्त मेरे 
मेरी बाहों को सलीब कहते हैं 
काश तुम जैसा हमें भी दोस्त मिले 
ये मुझसे मेरे रकीब कहते हैं
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मौलवी जी बोले "खुदा गवाह है " 
चोर बोला "तो मुनसिब कौन है ?"
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एक एक करके दोस्त सब किनारा कर गए 
बेवफाई की तोहमतों से मेरी झोली भर गए
आसमां में रात भर कोई टहलने नहीं आया 
मौसम कि बदमिजाजी से तारे भी डर गए 
मैं आवारा हूँ सो वीराने ही हैं मेरे नसीब में
तुम कहो तुम क्यों नहीं अभी अपने घर गए
पूछे जो मेरे बारे में यहाँ आके कभी कोई 
कहे देना कि तुम्हें ढूँढ़ते न जाने किधर गए
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खूबसूरत है, दिलकश है, रंगीन भी 
ये दुनिया दिखने में तो है हसीन सी 
बस आदत हो गयी सो जिए जाते हैं 
ज़िन्दगी बन के रह गई है अफीम सी
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अंधेरो के झाँसे में आ जाते है 
लोग चिरागों से शर्ते लगाते हैं 
जाने क्या हो गया भरोसो को 
बस ज़रा से ठेस से टूट जाते है 
जो ज़मीन के काबिल नहीं होते 
वो लोग हवाओं में घर बनाते है 
यूँ गर्दने ऐंठ के जो चलते हैं 
पाँव उनके ही लड़खड़ाते हैं 
मेरी बातो से उन्हें इत्तेफाक नहीं 
पर मेरी ग़ज़लें गुनगुनाते हैं
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ज़माने की निगाहों में रहना है तो संभल के रहना 
कहीं गिर गए तो फिर बाद में न मुझ से कहना 
चाहता तो हूँ कि बस चुप चाप सब कुछ देखा करूँ 
पर मेरी फितरत में ही नहीं जोर-ज़बर को सहना
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बाधाएँ द्रढ़ शक्ति देती है 
निराशा नहीं ...
परिश्रम ही लक्ष्य तक पहुँचाएगा
अभिलाषा नहीं....
यहाँ सब को संदेह ही संदेह है 
जिज्ञासा नहीं .... 
मुझे ज़िन्दगी का अर्थ समझना है 
परिभाषा नहीं ....
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कुछ सवाल हुए कुछ जवाब हुए 
और फिर कुछ ख्वाब बेनकाब हुए
कुछ रिश्तों की भी है ताबीर हिली 
जब कभी वफाओं के हैं हिसाब हुए
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वो मेरे पास बस यूँही तो नहीं आया होगा 
कुछ तो हैं उसने जो मुझसे कभी चाहा होगा 
ज्यादा बोलना माना कि उसकी फितरत में नहीं 
पर उसकी ख़ामोशी ने तुम्हें कुछ तो बताया होगा 
उसकी मुस्कराहट में तन्ज़ सा दिखा मुझको 
ज़रूर किसी बात का ऐतराज़ जताया होगा 
चलो छोड़ो, क्या बुरा मानना उसकी बेवफाई का 
ये दस्तूर ए दोस्ती है सो उसने भी निभाया होगा
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मैं तो यूँ चुप हूँ कि अब मुझे उससे कोई आस नहीं 
वो समझता हैं उसकी बेवफाई का मुझे अहसास नहीं 
वो जो मेरी ऊँगली पकड़ सीखे चलना, मेरे तवारुख में 
बस इतना कहते हैं कि इक दोस्त है पर कोई ख़ास नहीं
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ख्वाहिशें, शिकायतें, उम्मीदें बेबस नज़र आती हैं 
तब इक अरसे की सोच अल्फाजो में ढल जाती है 
हाँ .. एक क्षणिका, क्षण में लिखी जाती है
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नीयत अच्छी हो 
तो बुरा वक़्त नहीं टिक पाता है ...
सच के होम में 
झूठ भस्म हो जाता है ....
हों बुलंद हौंसले 
तो तकदीरें बदल जाती हैं .....
साथ अपनों का हो 
तो सफ़र घर सा नज़र आता है ....
तेरी रहमत हुई तो 
वो इक ज़र्रा आफताब बना .....
वरना फलक में 
यूँ कौन नज़र आता है .......
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"वक़्त" बदलता रहता है वक़्त के साथ 
पर कुछ लोग ज़्यादा ही बदल जाते हैं 
वक़्त की रफ़्तार पकड़ते पकड़ते 
शायद वक़्त से भी आगे निकल जाते हैं
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मैं कह ही कहाँ पाया बात अपने दिल की 
पर वो जान भी गए और बुरा मान भी गए
मेरे कलाम पढ़ के वो जो यूँ मुस्कुरा रहे हैं 
लगता हैं मेरे इरादों को वो पहचान ही गए
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दिवारे गिराता रहूँ , 
पुल बुनता रहूँ
कारवां से आगे चलता रहूँ 
राह से सब  काँटे चुनता रहूं ~~
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इक दूजे को कभी समझ ही नहीं पाए 
जाने क्या इक दूजे से चाहते रहे ....
मैं और मेरी ज़िन्दगी.. 
आपस में टकराते रहे
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भरोसा बाजुओं पे हो तो फिर तकदीरो से क्या डरना |
जो सीने में नहीं है दम, धड़कते दिल का क्या करना |
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ज़हन में कुछ और ही है इन दिनों 
ख्वाहिशें मुँहजोर सी हैं इन दिनों 
रातों कि स्याही अब इनसे मिटती नहीं 
थकी थकी हर भोर सी है इन दिनों 
सबकी आँखों में ही कुछ सवाल हैं 
तोहमतो का दौर ही है इन दिनों 
अब कहाँ अल्फाजो में वो जुम्बिश रही 
कलम भी कमज़ोर सी हैं इन दिनों .......................
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हर किसी को खुश रख पाऊँ, मेरे बस की बात नहीं 
चंदा को सूरज बतलाऊँ मेरे बस की बात नहीं 
कभी कभी तो मन करता है छोड़ दूँ सबसे लड़ना मैं 
पर अन्याय को सहता जाऊं मेरे बस की बात नहीं 
तुम चाहो तो साथ मेरा कभी भी छोड़ चले जाना 
मंजिल से पहले रुक जाऊं मेरे बस की बात नहीं 
समझ सको तो समझ लो मेरी आंखें क्या बतलाती हैं 
दिल की बाते बयां कर पाऊँ मेरे बस की बात नहीं
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पढ़ तो लेता हूँ सबकुछ पर मुझे लिखना नहीं आता 
अपने वुजूद से छोटा या बड़ा मुझे दिखना नहीं आता 
है कौन हल्का है क्या भारी हमेशा सच ही तोलूँगा 
मैं वो काँटा हूँ तराजू का जिसे बिकना नहीं आता
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बेवजह ज़िन्दगी में, कुछ नहीं होता 
तो बेवजह क्यों है तू परेशाँ होता 
बेवजह तोहमतें हैं क्यों लगती 
शख्स कोई बेवजह है क्यों रोता 
बेवजह किस बात की उदासी है 
बेवजह दुनिया क्यों खफा सी है 
बेवजह बाते क्यों करते हैं लोग 
बेवजह खुद से क्यों डरते हैं लोग 
बेवजह किस खातिर तरसते हैं लोग 
बेवजह उम्मीद सी क्यों जग जाती है 
बेवजह क्यों ज़िन्दगी लुभाती है
और ये मौत क्यों बेवजह आती है .......
बेवजह ज़िन्दगी में.. कुछ नहीं होता
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रात अमावास की,
को मुँह चिढ़ाती है |
ये जो उम्मीद के दिए में
इक धैर्य की बाती है ....
हर राह आसां है,
हर काम मुमकिन है
वो रब्ब तेरा राखा है
जो तू सत्य का साथी है
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अब क्या करे धरती ??
जिनकी भूख ये मिटाती है 
उनकी नियत नहीं भरती !!!
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हर सुबह चढ़ता सूरज कुछ समझाता है 
बाग़ में हर खिलता फूल हमें बताता है 
वक़्त कभी एक सा नहीं रहता 
बुरा जाता है, तो अच्छा आता है 
अपने सपनो को अपनी आँखों में पलने दो 
खुद को हालत की अग्नि में न जलने दो 
अपने विश्वास को जिन्दा रक्खो 
उम्मीदों को ख़ुदकुशी न करने दो
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दम घुटता है बन के साँस जब ये आती हैं 
ताज़ी हवाएँ कितनी ज़हरीली हुई जाती हैं
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वो शहीदों की चिताओं की ज्वाला थी
बेड़ियाँ घुलामी की जिसने पिंघलाई थी
उन्ही चिताओं की अग्नि के उजाले थे
जिसने सुबहा आजादी की हमें दिखाई थी
आज भी इस वतन के गद्दारों के वंशज
उन चिताओं पे सत्ता की रोटी सेक रहे हैं
सबसे बड़ी विडम्बना ये है की हम सब
बस मूक-दर्शक बन सब कुछ देख रहे हैं ......
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मुझ जैसा बनने कि कोशिश में
जाने कितने मुकद्दर बिगड़ गए ....
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वक़्त-ए-रुखसत उन आँखों में अनछुई कहानी थी 
न जाने वो बात क्या होगी जो मुझे उसने बतानी थी 
न मैं उससे नवाकिफ था न वो मुझसे अनजानी थी 
पर कुछ हालत ऐसे थे कि मुहब्बत हो ही जानी थी
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मौसम का तकाज़ा है कि घर पे ही रहो 
तेज़ हवाएँ अक्सर पर्दों को उड़ा देतीं हैं
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मैं उस से एक तरफ़ा प्यार करता रहा 
और ये सिलसिला बा दस्तूर चलता रहा 
ज़िन्दगी मुझे मारती रही और मैं ज़िन्दगी पे मरता रहा
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तू जिस किसी को भी रस्ता दिखायेगा 
"वो" सबसे पहले तुझे रस्ते से हटाएगा 
ये दस्तूर कोई नया नहीं है ए मेरे दोस्त 
जो इस शहर में रहेगा तो समझ जाएगा
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छोटे मोटे हादसों की खबरे कहा बनती हैं 
शहीदों की आज कल कब्रें कहा बनती हैं
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तकदीर से शिकवा कैसा 
ज़िन्दगी से शिकायत कैसी 
हम अपने अंदाज़ से जिए 
वो अपने हिसाब से चले...
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ये तो हम हीं है जो, तुझपे मरने को तैयार हैं 
वरना ए ज़िन्दगी तेरा करता कौन ऐतबार है 
मुझमे बुलंदियों को छू लेने की हसरत भी है 
और पैर की जंजीरों से भी बड़ा प्यार है 
मैं कैसे उसको कह दूं कि मुझे न प्यार कर 
भला उसके के दिल पे मेरा क्या इख्तेयार है
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अखबार पढ़ते हुए एक पिता ने बेटे को बताया 
"आज अपने देश का 'प्रथम नागरिक' चुना जायेगा "
बच्चे ने मासूमियत से पूछा 
"ये प्रथम नागरिक कौन होता है 
क्या बाढ़ का पानी सबसे पहले इसका घर डुबोता है 
या जब जंग छिड़ती है तो ये सबसे आगे लड़ने जाता है 
या ... या .. या.. न जाने कितने ऐसे सवाल" 
बच्चे कितने बड़े सवाल पूछने लगे हैं 
या हमें .. छोटे छोटे सवाल कितने बड़े लगने लगे हैं .......
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यूँ मैं, खुद को इक उम्र तक छलता रहा
अपने साये को दे दिया नाम तेरा
और फिर धूप में चलता रहा-चलता रहा ....
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चेहरा कोई भी लगा लें 
पर सब जीते हैं 
ज़िन्दगी अपनी अपनी यहाँ ..
किसी का ग़म कोई जी नहीं सकता 
किसी की ख़ुशी किसी को बर्दाश्त कहाँ ...
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वो और वक्त था जब छत पे पलंग लगाते थे
चाँद को सिरहाना बना 
तारे ओढ़ के सो जाते थे ............
वो और वक़्त था जब सूरज से पेच लगते थे
वफ़ा की डोर से
दोस्ती की पतंग उड़ाते थे .............
वो और वक़्त था जब भावनाओं की कीमत थी 
बस सवा रुपये में ही
भगवान् मान जाते थे........
वो वक़्त और था जब बस चोर चोरी करते थे
डाकू बीहड़ में और
नेता संसद में पाए जाते थे .......
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बस इतनी सी बात पे वो हमसे खफा रहा 
हम बोले यूँ सबसे हँस के न मिला करो 
और वो बोले की हमने उसे "बेवफा" कहा
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पत्थर के बने मन्दिर में 
भगवान् की मूरत पत्थर की 
तुम अपने मन-मन्दिर को तो 
अब पत्थर का न होने दो ...
जहां प्रभु स्वयं आके वास करें
कोई जगहाँ तो ऐसी हो ...
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पहले तो अपना घर ही अपनी "दुनिया" थी
फिर ये पूरी दुनिया घर सी लगने लगी
और अब घर में ही घर नहीं मिलता
दुनिया बहुत बड़ी हो गयी हो जैसे .....
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कुछ दिन खुद-ब-खुद आ जाते हैं
कुछ दिनों तक जाना पड़ता है
और कुछ दिन लाने पड़ते हैं .....
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बस कि, मुझसे त्वालुकात न यूं बढ़ाइए 
मैं बंदा कुछ ठीक नहीं, सो, संभल जाइए
मरहम की मेरे ज़ख्मो को आदत कहाँ 
आप दोस्त हैं तो थोडा नमक ले आइये 
ये नजदीकियां बदनाम कर देंगी तुम्हें 
ज़रा दूर रहो जो तुमको शौहरत चाहिए 
में चुप हूँ पर शिकवे कई मुझको भी हैं 
मेरी ख़ामोशी को बस और न आजमाइए
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अब शरीफों का चरित्र देख के गुण्डे-बदमाश भी स्तब्ध है 
इमानदारी कभी बिकती नहीं बस किराए पे उपलब्ध है
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मँहगाई के दौर में 
दूध का धुला है, कौन 
धुला भी हो ...
तो इमानदारी बनावटी है 
पर किसी का दोष क्या
दूध ही मिलावटी है .....
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अँधेरे की आड़ में इंसान क्या क्या कारनामें करता है 
बस यही सोच के सूरज का दिल सारा दिन जलता हैं 
एक दिन सूरज ने कहा 
"चलो आज रात में भी निकलता हूँ "
सब शरीफों ने हल्ला कर दिया ........
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मेरे वजूद का मेरे रकीब भी अहतराम करने लगे 
मुझसे लड़ नहीं पाए तो मुझे बदनाम करने लगे
आज लगता उन्हें मेरी ज़रुरत है कहीं आन पड़ी 
जो सर-ए-महफ़िल मुझसे दुआ सलाम करने लगे
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भला .. और क्या हमें चाहिए 
जिन्दा रहने के लिए ...
कुछ फ़र्ज़ हैं, कुछ क़र्ज़ हैं, 
कुछ दर्द हैं, कुछ मर्ज़ हैं 
सबसे ख़ुशी की बात है 
कि दोस्त भी हैं जो खुदगर्ज़ हैं ...
तू ही बता ए ज़िन्दगी .. 
तुझे और क्या कुछ चाहिए ..
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जो बात सच है वो बेख़ौफ़ हो के कहता हूँ 
तंज़ दुनिया के मुस्कुरा के सभी सहता हूँ 
एक तख्ती ही लगी रह गई मेरे नाम की बस 
इस मकान में अब "मैं" कहाँ रहता हूँ
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जैसे कोई बात है मन में 
पर कह नहीं पा रहे हैं ....
कई बार आए 
कुछ देर तक ठहरे, फिर चले गए 
हमारी बेकरारी बढ़ा रहे हैं 
ये .... बादल हमें सता रहे हैं ....
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माना तुम्हारे वश में न था 
सूरज को थामें रखना
किन्तु अँधेरा होने से पहले 
जो तुम दीपक एक जला देते 
उन उजालो पे तुम्हारा नाम होता ...
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राज़ सारे, दो पल में, दिल के खोल आए 
निगोड़े आँसू न जाने क्या क्या बोला आए
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कोई ज़माना था
जब.. "चमचे चाँदी के हुआ करते थे "
अब .. "चमचों की चाँदी है"
बदन पे खादी है 
जेब में गाँधी है .... 
जो चुप रहे उसे मिलता "प्रणाम" है 
जो झूठ बोले उसे मिलता इनाम है 
और जो सच्चा है उसका जीना हराम है 
चलो भाइयो ..
जो भी है .. 
"अपना भारत फिर भी महान है "
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ये मशवरे देने के सिवा और क्या करते हैं .. 
ये दोस्त न दुआ करते हैं न दवा करते हैं 
थोड़ी सी चिंगारी भी कहीं देख लें अगर 
दामन से अपने जोर-जोर से हवा करते हैं
सच बोल के महफूज़ कितना है यहाँ कोई 
मेरी खिड़की के टूटे काँच सब बयाँ करते हैं
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हर सुबह चढ़ता सूरज कुछ समझाता है 
बाग़ में हर खिलता फूल हमें बताता है 
वक़्त कभी एक सा नहीं रहता 
बुरा जाता है तो अच्छा आता है 
खुद को हालत के अग्नि में न जलने दो 
अपने सपनो को अपनी आँखों में पलने दो 
अपनी उम्मीदों को जिंदा रक्खो 
आशाओं को ख़ुदकुशी न करने दो
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हर रोज़ सुबह अखबारों में यहाँ खबरे बिकती हैं 
जो जीते जी नहीं बिकते उनकी कब्रे बिकती हैं 
कौन दिखायेगा दुनिया को हकीकत दुनिया की 
कही नज़ारे बिकते हैं, तो कही नज़रे बिकती हैं
किस पे करू भरोसा कहाँ छाँव मिलेगी मुझको
धूप के हाथो हर लम्हा यहाँ शज़रे बिकती हैं
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बिना आँगन के ऊँचे घरो की 
आदत सी हो गयी अब पतझड़ों की 
मुरब्बे आँवले के कौन खाए 
कौन सुनता है अब अपने बड़ों की 
तुम्हारे आँसुओं से क्या होगा 
अपनी सरकार है चिकने घड़ों की
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तुम्हारी ही तरहां 
"सब भगवान् के हाथ है" कह 
हर कोई अप्र्यत्नशील हो जाए 
तो ज़रा सोचो ...
जीवन का क्या मज़ा रह आये ....

संतोष के नाम पे निठ्ठला 
सय्यम की आढ़ में आलसी 
हो जाए 
अपने डर को सहनशीलता के 
मखौटे में छुपाये
और फिर अपने अभिमान को
स्वाभिनाम बताये ..
तो .. सोचो ज़रा
जीने का क्या मायेना रह जाए .......
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सुना है बंदा वो रहा अब पहले जैसा आम नहीं
सो ऐरे-गैरे लोगो से करता दुआ-सलाम नहीं
तेरे-मेरे जैसे भी अपना तखल्लुस लिखने लगे
अदब की दुनिया में जिनका नामो-निशान नहीं
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हवा भी खुश्क है, लोगों के मिजाज़ के जैसे 
बता तेरे शहर में कोई रहे तो फिर रहे कैसे
शोर सिक्कों की खनखनाहट का है चारो तरफ 
बातें दिल की कोई कहे तो फिर कहे कैसे
रंग दुनिया के देख पत्थर की हो गयी आँखें 
नदी अश्कों की अब बहे तो फिर बहे कैसे
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याकीन मानो दुनिया में खुद को अकेला पाओगे
रिश्तो की आजमाइश करने जो निकल जाओगे
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सच या झूठ को लोग सिक्कों में तोलते हैं
जो बोलने से दाम बेहतर मिले वो बोलते हैं
उम्मीदें तो थक हार के बैठ जाती हैं घर पे
बस ख्वाब हैं जो दिन रात सडको पे दौड़ते हैं
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कोई बस्ती जली है, कहीं से धुंआ उड़ा चला आता है
दिल में दर्द तो नहीं पर आँखों से सैलाब बहा जाता है
कल बेच के आया था जो अपनी दस्तार को बाज़ार में
आज उन हज़रात को साहिब-ए-किरदार कहा जाता है
जो बस अपने बारे में सोचे उसे मतलब परस्त कहते हैं
और मतलब परस्तों के झुण्ड को सरकार कहा जाता है
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जवाब सुनते, तो बैठ न पाते
सो, सवाल करके वो चलते बने ,,,,,,,,,,,
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कभी गौर से सुनना 
जलती तपती गर्मी के बाद 
जब बारिश की पहली बौछार 
धरती पे गिरती है ...
तो "छान्न्नन्न्न्न " की आवाज़ आती है 
जैसे गर्म तवे पे पानी के छींटे गिरे हों ....
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वो पाक दामन था
दिल का भी साफ़ था
बस बेवफा निकला .. अजब ... इत्तेफाक था

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